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|रचनाकार=बुलात अकुदझ़ावा
|अनुवादक=सोनू सैनी
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<poem>
सादगी से जीना चाहता है इनसान,
लेकिन रातों की तनहाई में
मानो आँखों की गहराई में
धधकता हुआ शोला करता है परेशान।

जैसे उल्का आगे बढ़ते हुए अकेलेपन में,
न चाहते हुए अपने आख़िरी पलों में
धीरे-धीरे, होले-होले जल जाता है नादान
सभी की नज़रों में आ जाता है अनजान।

जलते हुए बदल जाती है न केवल काया।
ये वक़्त है जो उसकी नज़ाकत-नरमी को
भस्म कर सिरे से, कर देता है उसे पराया
जैसे माचिस की एक तीली से निकला पतंगा
लपटों के आगोश में ख़ूबसूरत महल की छाया
कर देता है बरबाद और पल में उसे ज़ाया ।

सादगी से जीना चाहता है इनसान,
करता है ऊँचाई के पैमानों से घमासान ।
उस्ताद हैं इनसान कुछ ख़ास और महान
एक ये ज़मीन और एक वो आसमान ।

1959
'''मूल रूसी से अनुवाद : सोनू सैनी'''

'''लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए'''
Булат Окуджава

</poem>
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