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अच्छा! / नवीन कुमार

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<poem>
मैं रोना चाहता था और
सो जाना चाहता था

कल को
किसी प्रेम पगी स्त्री का विलाप सुन नहीं सकूँगा
पृथ्वी पर हवाएं उलट पलट जाएंगी
समुद्र की लहरें बिना चांदनी के ही
अर्द्धद्वितीया को तोड़-तोड़ उर्ध्वचेतस् विस्फोट करेंगी

मैंने प्रेम करना चाहा
सारी पृथ्वी को
अपने को नहीं
लोगों ने समझाया 'ये तुम्हीं हो जिसके कारण तुम जीते
मैंने कहा -'अच्छा!'
</poem>
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