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|सारणी=पटकथा / धूमिल
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<poem>जब मैं बाहर आया<br>मेरे हाथों में<br>एक कविता थी और दिमाग में<br>आँतों का एक्स-रे।<br>वह काला धब्बा<br>कल तक एक शब्द था;<br>खून के अँधेर में<br>दवा का ट्रेडमार्क<br>बन गया था।<br>औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद<br>अपनी ऊब का<br>दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।<br>मैंने सोचा !<br>क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच<br>अपनी भूख को ज़िन्दा रखना<br>जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की<br>वाजिब मजबूरी है।<br>मैंने सोचा और संस्कार के<br>वर्जित इलाकों में<br>अपनी आदतों का शिकार<br>होने के पहले ही बाहर चला आया।<br>बाहर हवा थी<br>धूप थी<br>घास थी<br>मैंने कहा आजादी…<br>मुझे अच्छी तरह याद है-<br>मैंने यही कहा था<br>मेरी नस-नस में बिजली<br>दौड़ रही थी<br>उत्साह में<br>खुद ख़ुद मेरा स्वर<br>मुझे अजनबी लग रहा था<br>मैंने कहा-आ-जाज़ा-दी<br>और दौड़ता हुआ खेतों की ओर<br>गया। वहाँ कतार के कतार<br>अनाज के अँकुए फूट रहे थे<br>मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये<br>बच्चे। तारों पर<br>चिडि़याँ चिड़ियाँ चहचहा रही थीं<br>मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…<br>खेत की मेड़ पार करते हुये<br>मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी<br>सड़क पर जाते हुये आदमी से<br>उसका नाम पूछा<br>और कहा- बधाई…<br>घर लौटकर<br>मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं<br>पुरानी तस्वीरों को दीवार से<br>उतारकर<br>उन्हें साफ किया<br>और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)<br>पोंछकर टाँग दिया।<br>मैंने दरवाजे के बाहर<br>एक पौधा लगाया और कहा–<br>वन महोत्सव…<br>और देर तक<br>हवा में गरदन उचका-उचकाकर<br>लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा<br>देर तक महसूस करता रहा–<br>कि मेरे भीतर<br>वक्त वक़्त का सामना करने के लिये<br>औसतन ,जवान खून है<br>मगर ,मुझे शान्ति चाहिये<br>इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया<br>‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’<br>और चहकते हुये कहा<br>यही मेरी आस्था है<br>यही मेरा कानून है।<br>इस तरह जो था उसे मैंने<br>जी भरकर प्यार किया<br>और जो नहीं था<br>उसका इंतज़ार किया।<br>मैंने इंतज़ार किया–<br>अब कोई बच्चा<br>भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा<br>अब कोई छत बारिश में<br>नहीं टपकेगी।<br>अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में<br>अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा<br>अब कोई दवा के अभाव में<br>घुट-घुटकर नहीं मरेगा<br>अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा<br>कोई किसी को नंगा नहीं करेगा<br>अब यह ज़मीन अपनी है<br>आसमान अपना है<br>जैसा पहले हुआ करता था…<br>सूर्य,हमारा सपना है<br>मैं इन्तजा़र करता रहा..<br>इन्तजा़र करता रहा…<br>इन्तजा़र करता रहा…<br>जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…<br>संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…<br>ये सारे शब्द थे<br>सुनहरे वादे थे<br>खुशफ़हम ख़ुशफ़हम इरादे थे<br>सुन्दर थे<br>मौलिक थे<br>मुखर थे<br>मैं सुनता रहा…<br>सुनता रहा…<br>सुनता रहा…<br>मतदान होते रहे<br>मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे<br>उसी लोकनायक को<br>बार-बार चुनता रहा<br>जिसके पास हर शंका और<br>हर सवाल का<br>एक ही जवाब था<br>यानी या कि कोट के बटन-होल में<br>महकता हुआ एक फूल<br>गुलाब का।<br>वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र<br>समझाता रहा। मैं खुद को<br>समझाता रहा-’जो 'जो मैं चाहता हूँ-<br>वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल<br>
मगर सब कुछ सही होगा।
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