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|सारणी=पटकथा / धूमिल
}}
{{KKLambiRachana}}और सुनो! नफ़रत और रोशनी<br>सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं<br>जिसे जंगल के हाशिये पर<br>जीने की तमीज तमीज़ है<br>इसलिये उठो और अपने भीतर<br>सोये हुए जंगल को<br>आवाज़ दो<br>उसे जगाओ और देखो-<br>कि तुम अकेले नहीं हो<br>और न किसी के मुहताज हो<br>लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं<br>वहाँ चलो।उनका चलो।उनका साथ दो<br>और इस तिलस्म का जादू उतारने में<br>उनकी मदद करो और साबित करो<br>कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं<br>जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’<br>मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था<br>एक के बाद दूसरा<br>दूसरे के बाद तीसरा<br>तीसरे के बाद चौथा<br>चौथे के बाद पाँचवाँ…<br>यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प<br>चुन रहा था<br>मगर मैं हिचक रहा था<br>क्योंकि मेरे पास<br>कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं<br>जो मेरी सीमाएँ थीं<br>यद्यपि यह सही है कि मैं<br>कोई ठण्डा आदमी नहीं है<br>मुझमें भी आग है-<br>मगर वह<br>भभककर बाहर नहीं आती<br>क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ<br>एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है<br>जो परिवर्तन तो चाहता है<br>मगर आहिस्ता-आहिस्ता<br>कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता<br>बनी रहे।<br>कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे<br>और विरोध में उठे हुये हाथ की<br>मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात<br>फैलने की हद तक<br>आते-आते रुक जाती है<br>क्योंकि हर बार<br>चन्द सुविधाओं के लालच के सामने<br>अभियोग की भाषा चुक जाती है।<br>मैं खुद को कुरेद रहा था<br>अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को<br>सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।<br>इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर<br>जमी हुई काई और उगी हुई घास को<br>खरोंच रहा था,नोंच रहा था<br>पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये<br>मैंने आदमी के भीतर की मैल<br>देख ली थी। मेरा सिर<br>भिन्ना रहा था<br>मेरा हृदय भारी था<br>मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं<br>अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से<br>थोड़ी देर के लिये<br>बचना चाह रहा था<br>जो अपनी पैनी आँखों से<br>मेरी बेबसी और मेरा उथलापन<br>थाह रहा था<br>प्रस्तावित भीड़ में<br>शरीक होने के लिये<br>अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था<br>अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर<br>खींच लिया और मैं<br>जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में<br>ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये<br>धड़ाम से-<br>चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर<br>मत-पेटियों के<br>गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा<br>नींद के भीतर यह दूसरी नींद है<br>और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है<br>सिर्फ एक शोर है<br>जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं<br>शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …<br>राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…<br>सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…<br>वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…<br>शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…<br>एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…<br>झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…<br>मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ<br>और अँधेरे में गाड़ दी है<br>आंखों आखों की रोशनी।<br>सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है<br>मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में<br>मैंने देखा हर तरफ<br>रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं<br>गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये<br>गुट से गुट टकरा रहे हैं<br>वे एक- दूसरे से दाँतादाँत-किलकिल कर रहे हैं<br>एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं<br>हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं<br>श्रीमान् किन्तु हैं<br>मिस्टर परन्तु हैं<br>कुछ रोगी हैं<br>कुछ भोगी हैं<br>कुछ हिंजड़े हैं<br>कुछ रोगी हैं<br>तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं<br>आँखों के अन्धे हैं<br>घर के कंगाल हैं<br>गूँगे हैं<br>बहरे हैं<br>उथले हैं,गहरे हैं।<br>गिरते हुये लोग हैं<br>अकड़ते हुये लोग हैं<br>भागते हुये लोग हैं<br>पकड़ते हुये लोग हैं<br>गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं<br>एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे<br>इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में<br>असंख्य रोग हैं<br>और उनका एकमात्र इलाज-<br>
चुनाव है।