भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिफ़्यूजी का घर / विनोद शाही

6,300 bytes added, 09:18, 12 अप्रैल 2022
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद शाही |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विनोद शाही
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
रोम में रहकर रोमन सा दिखने से क्या होगा
रिफ़्यूजी रिफ़्यूजी रहता है

मुसलमान मुसलमान होकर भी
मुजाहिर कहलाता है पाकिस्तान में
रोहिंग्या म्याँमार में

कितना ही गोरा हो
इमीग्रेण्ट हमारा
पश्चिम में काला
या ज़्यादा से ज़्यादा भूरा होता है

हमारे वक़्त की सबसे बड़ी बदक़िस्मती है
ग्लोबल होकर
सब की तरह सब कहीं होकर
कहीं का न होना

जो अपनी तरह नहीं होता
किसी और की तरह कैसे हो सकता है ?

दूसरों से प्यार करने का मतलब ये नहीं होता
कि दूसरे भी हमसे प्यार करते हों

दूसरों को जाने बिना
उन पर यक़ीन किया जिसने
ग़ुलाम हो गया
जो नहीं हुआ ग़ुलाम
रिफ़्यूजी हो गया

अपनी जड़ों को काटकर जो
कहीं भी घूम-घाम आने को आज़ाद हुआ
सीमाओं के पार उतरा
अगर दूसरों को नहीं बना सका ग़ुलाम
तो ख़ुद रिफ़्यूजी हो गया

जो नहीं गए कहीं
उनकी मुसीबत भी कुछ कम नहीं रही
विकास को वे
अपनी लिप्साओं की ग़ुलामी कहते रहे
लताड़ते रहे ख़ुद को
अपनी इच्छाओं के पूरी न हो सकने की खिसियाहट को
कीचड़ में कमल होने का नाम देकर छिपाते रहे
भुखमरी के हालात से जूझने की बजाय
सिकुड़ी देह को तप
सुन्न दिमाग को समाधि बताते रहे
मर मिट जाने में ब्रह्म को देखते दिखाते रहे
ढोंग को लफ़्फ़ाज़ी से छिपाते रहे
पीछे छिप गए अन्धेरों की तरह
रोशनी में होने के भरम को बचाते रहे
उलझते रहे ख़ुद को बाँधने वाली रस्सियों के साथ
जिनके दूसरे सिरे अज्ञात हाथों में थे

दो तिहाई से ज़्यादा ही दुनिया है जो
ख़ुद अपनी या दूसरों की वजह से
अपनी ज़मीन से
और अपने आपसे
जलावतन है
सनातन रिफ़्यूजी की तरह है, बस, जी रही है

दुनिया ये कुछ तो अपने ही देश में प्रवासी हैं
कुछ दूसरी बाक़ी की दुनिया में
दूसरी तरह से टपरीवासी हैं वणज़ारन हैं
कुछ हाशिये पर, वन में कुछ
तो कुछ अवैध भी हैं
यों ही कहीं भी घुसे चले आए हैं

रिफ़्यूजी हैं कि पृथ्वी की
सब ख़ाली जगहों को भर रहे हैं

वे यहूदी
पाले बदलते ही रहे हैं
दीवार ईश्वर की खड़ी है बीच में येरूसलम की
उस तरफ के लोग कैम्पों में पड़े हैं
कुछ मुहाजिर , कश्मीरी पण्डित
मूलवासी भी हैं कुछ जो
रिफ़्यूजी गोरों के लिए हैं
दूसरे देशों में कुछ भेजे गए हैं
बन्धक श्रमिक हैं
गिरमिटिये बड़े ही काम के हैं
तेल से लथपथ
भरे दुर्गन्ध से हैं
भुखे हैं उजड़े सूडान से हैं
आप ख़ुद को मारते हैं
फिदायीन भी कितनी क़िस्म के हैं
कुछ विभाजित मुल्क के हैं
न इधर के, न उधर के लोग हैं
कुछ मज़हबी जुनून में हैं
पैरों तले हैं
तहज़ीब के वे स्वप्न में है
सत्ता से बाहर फेंके गए हैं
रिफ़्यूजी सियासी भी बड़े हैं
अपने ही घर में क़ैद हैं
बेसमेण्टों में छिपे हैं
वक़्त के मुजरिम नहीं जो
पाक ग्रन्थों से छिटक बाहर पड़े हैं
रिफ़्यूजी आदिम, जन्नत से धरती पे गिरे हैं
वैकुण्ठ जिनका असल घर है
इस जगत में लीज़ पर हैं
ज़िन्दगी पूरी रिफ़्यूजी की बिताकर
मरके ही घर को लौटते हैं
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits