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मैं आज तक ऐसे बाप से नहीँ मिली जो अपने बेटे को किसान बनाना चाहता हो
न मिली हूँ ऐसी माँ से जो बेटे को भारत माता का सिपाही बनाकर जंग पर भेजने की ख़्वाहिश रखती हो
मुझे ताज़्जुब होता है
जब कोई प्रसिद्ध मंचीय कवि वीर रस की कविता सुनाने के बाद चिल्लाकर कहता है
'जय जवान, जय किसान'
और वहां बैठे श्रोताओं की आँखें ताली बजाते-बजाते गर्व से भर जाती हैं
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
ख़ून के आँसू नहीँ देखे
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
पसीने के आँसू भी नहीँ देखे
मैं ऐसी बहुत-सी माँओं, बीवियों और बहनों से मिली हूँ
जिनके बेटे सियाचीन की ठण्ड में सिकुड़ कर मर गए
जिनके शौहर राजस्थान के रेत में झुलसकर जवानी में ही जर्जर, पुराने और मैले हो गए
जिनके भाई बस्तर के जंगलों में भटकते-भटकते अफ़सरों के हाथों की कठपुतली होते गए
ये सब के सब किसी 'विजय' के लिए नहीँ
'रोज़गार' के लिए भर्ती हुए थे फ़ौज में
जैसे बाक़ी बचे हुए डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, चपरासी, सफ़ाईकर्मी इत्यादि बन गए वैसे ही ये फ़ौजी बन गए थे
जो ये भी नहीँ बन पाए और जिनके पास खेत थे
वे किसान बन गए
जिनके पास खेत भी नहीँ थे
वे दूसरोँ के खेतों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर बन गए
जब पानी की कमी से फ़सलें सूखीं तो ये रोए
जब बारिश और ओले इनकी फ़सलों पर गिरे
तो ये फिर रोए
ये बार-बार रोए और कुछ तो ख़ुदकुशी करके मर भी गए
जब ये नए-नए जवान हुए थे तो शाहरूख खान और सचिन तेंदुलकर बनने के ख़्वाब देखते थे
मगर इनके ख़्वाब अठारह में ही टूट गए तब
जब इन्हें दुश्मन से लड़ने का अभ्यास कराने के दौरान पिट्ठू बांधकर मेढ़क की तरह दौड़ाया गया
जब इन्हें सूरज के सामने बिठाकर फ़सल काटने का आदेश दिया गया
इन सैनिकों को नहीँ मालूम कि कितने वीर रस के कवि इनको विषय बनाकर पड़ोसी मुल्क की जीभ खींचने का अरमान पाल रहे हैं
इन किसानों को नहीँ मालूम कि यथार्थवादी कविताओं को इनकी कितनी ज़रूरत है
ये अपनी क़िस्मत को कोसते हैं
इन्हें लगता है इनकी ज़िन्दगी में कुछ भी दिलचस्प नहीँ
अपने छोटे-छोटे हाक़िमों के लिए गन्दी-गन्दी गालियाँ बुदबुदाते हुए
आधी रात को उठकर लाल चौक पर ड्यूटी करने जाने वाले ये जवान
सवेरे-सवेरे जल्दी उठकर सिघाड़े के लिए दलदल में उतरने वाले ये किसान
उस सबसे बड़े 'हाक़िम के तिलिस्म' के बारे में ज़रा-सा भी नहीँ जानते
जिसने इन्हें 'जिन' में बदलकर अपनी ज़िन्दगी ख़ासी दिलचस्प और रंगीन बनाकर रखी है ।
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मैं आज तक ऐसे बाप से नहीँ मिली जो अपने बेटे को किसान बनाना चाहता हो
न मिली हूँ ऐसी माँ से जो बेटे को भारत माता का सिपाही बनाकर जंग पर भेजने की ख़्वाहिश रखती हो
मुझे ताज़्जुब होता है
जब कोई प्रसिद्ध मंचीय कवि वीर रस की कविता सुनाने के बाद चिल्लाकर कहता है
'जय जवान, जय किसान'
और वहां बैठे श्रोताओं की आँखें ताली बजाते-बजाते गर्व से भर जाती हैं
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
ख़ून के आँसू नहीँ देखे
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
पसीने के आँसू भी नहीँ देखे
मैं ऐसी बहुत-सी माँओं, बीवियों और बहनों से मिली हूँ
जिनके बेटे सियाचीन की ठण्ड में सिकुड़ कर मर गए
जिनके शौहर राजस्थान के रेत में झुलसकर जवानी में ही जर्जर, पुराने और मैले हो गए
जिनके भाई बस्तर के जंगलों में भटकते-भटकते अफ़सरों के हाथों की कठपुतली होते गए
ये सब के सब किसी 'विजय' के लिए नहीँ
'रोज़गार' के लिए भर्ती हुए थे फ़ौज में
जैसे बाक़ी बचे हुए डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, चपरासी, सफ़ाईकर्मी इत्यादि बन गए वैसे ही ये फ़ौजी बन गए थे
जो ये भी नहीँ बन पाए और जिनके पास खेत थे
वे किसान बन गए
जिनके पास खेत भी नहीँ थे
वे दूसरोँ के खेतों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर बन गए
जब पानी की कमी से फ़सलें सूखीं तो ये रोए
जब बारिश और ओले इनकी फ़सलों पर गिरे
तो ये फिर रोए
ये बार-बार रोए और कुछ तो ख़ुदकुशी करके मर भी गए
जब ये नए-नए जवान हुए थे तो शाहरूख खान और सचिन तेंदुलकर बनने के ख़्वाब देखते थे
मगर इनके ख़्वाब अठारह में ही टूट गए तब
जब इन्हें दुश्मन से लड़ने का अभ्यास कराने के दौरान पिट्ठू बांधकर मेढ़क की तरह दौड़ाया गया
जब इन्हें सूरज के सामने बिठाकर फ़सल काटने का आदेश दिया गया
इन सैनिकों को नहीँ मालूम कि कितने वीर रस के कवि इनको विषय बनाकर पड़ोसी मुल्क की जीभ खींचने का अरमान पाल रहे हैं
इन किसानों को नहीँ मालूम कि यथार्थवादी कविताओं को इनकी कितनी ज़रूरत है
ये अपनी क़िस्मत को कोसते हैं
इन्हें लगता है इनकी ज़िन्दगी में कुछ भी दिलचस्प नहीँ
अपने छोटे-छोटे हाक़िमों के लिए गन्दी-गन्दी गालियाँ बुदबुदाते हुए
आधी रात को उठकर लाल चौक पर ड्यूटी करने जाने वाले ये जवान
सवेरे-सवेरे जल्दी उठकर सिघाड़े के लिए दलदल में उतरने वाले ये किसान
उस सबसे बड़े 'हाक़िम के तिलिस्म' के बारे में ज़रा-सा भी नहीँ जानते
जिसने इन्हें 'जिन' में बदलकर अपनी ज़िन्दगी ख़ासी दिलचस्प और रंगीन बनाकर रखी है ।
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