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|रचनाकार=बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक= उज्ज्वल भट्टाचार्य
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<Poem>
'''(20वीं सदी के तीसरे दशक में कविता का मानदेय देना बन्द कर दिया गया था)'''
'''- बैर्तोल्त ब्रेष्त'''

'''1'''

यहाँ जो पढ़ रहे हो, वह छन्द में बयां है !
पहले ही इसे कह देना हो गया है ज़रूरी
तुम्हारी क़िस्मत ही पाठक हो चुकी है बुरी
तुम्हें पता ही नहीं, कवि क्या और कविता क्या है ।

'''2'''

कहो मत कि पता नहीं ! पूछोगे नहीं कि हुआ यह कैसे ?
देखा नहीं तुमने कि कविता है नदारद ?
ऐसा क्यों ? तो कहता हूँ उनकी बाबत :
पहले तुम कविता पढ़ते थे और कवि को मिलते थे पैसे ।

'''3'''

मामला यूँ है कि कविता के लिए पैसे मिलना बन्द ।
इसीलिए सारे कवि अब हो चुके हैं मौन !
वे पूछते हैं, पैसे कौन देगा ? और यह नहीं कि पढ़ेगा कौन ?
पैसा गर न मिले, तो नहीं मिलेगा छन्द ।

'''4'''

पर आख़िर क्यों ? पूछता है वो, इसकी क्या दरकार है ?
लिखता तो था उनके माफ़िक, जो देते हैं पैसे ?
हमने अपना वायदा तोड़ा फिर कैसे ?
और अब हमने सुना है कि जो कलाकार है ।

'''5'''

उसकी तस्वीरें भी खरीदना बन्द, होता नहीं यक़ीन
लीपी तो थी ख़ूबसूरती उनमें ! अब उनका भी बेड़ा गर्क...
हमसे दुश्मनी क्यों ? तुम्हें क्यों पड़ गया फ़र्क ?
हम तो सुनते हैं आ चुके हैं तुम्हारे अच्छे दिन...

'''6'''

पेट जब भरा होता था तो कहते थे हम, दोस्त
क्या-क्या तुम्हें मयस्सर है हर दिन, हर रात
और आगे भी ऐसा ही होगा : अपनी औरतों का गोश्त !
पतझड़ की उदासी, बहते सोते का पानी, चाँदनी वगैरह की बात...

'''7'''

मीठे-मीठे फल ! झरते पत्तों की सरसर
और हाँ, अपनी औरतों का गोश्त ! और वह भी
जो छाया हुआ है हर पल तुम्हारे ज़ेहन पर
कि राख बन जाओगे, वह दिन भी आयेगा कभी !

'''8'''

और सिर्फ़ तुम्हें नहीं ! उन्हें भी हम करते थे क़ायल
सोने से मढ़ी कुर्सी जिन्हें हुई नहीं नसीब
पैसे तुम देते थे ! हम जाते थे उनके क़रीब !
सहलाते थे उन्हें, जो तुमसे हो जाते थे घायल !

'''9'''

हमेशा की है तुम्हारी सेवा ! समझा उसका मर्म !
बस, पैसे ही तो माँगे ! लेकिन झुक-झुककर !
कितने ही दुष्कर्म किए हमने ! तुम्हारी ख़ातिर ! कितने दुष्कर्म !
और हो जाते थे सन्तुष्ट जब खा लेते थे छककर !

'''10'''

हाँ, ख़ून और गर्द से सनी तुम्हारी बग्घियों पर
ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों की लगाई हमने लगाम !
तुम्हारे कसाईख़ानों पर लिखा, — „सम्मान सबसे ऊपर“
तोपख़ानों को कहा, — „हमारे भाई, सलाम !“

'''11'''

टैक्स वसूलने को नोटिस जब भेजे गए
काढ़े गए थे उनमें हमारे बनाए चित्र
हमारे लिखे गीत ऊँचे स्वर में गाते हुए
चुकाते रहे वे टैक्स तुम्हारे लिए, मित्र !

'''12'''

शब्द चुनकर अफ़ीम की तरह उन्हें घोंटा हमने
लाजवाब असर उनका, लाजवाब उनका स्वाद ।
हमने उन्हें पिलाया और फिर उसके बाद
पड़े रहे वे तुम्हारे क़दमों पर मानो हों मेमने !

'''13'''

जैसा तुम चाहते थे — वैसे ही हमने तुम्हारे गीत गाए
तुलना ऐसे दरिन्दों से की, जो तुम्हे हमेशा भाए
जिनके भूखे भक्त हम जैसे ही उनके गीत गाते थे बार-बार
तुम्हारे दुश्मनों पर हमारे गीत टूट पड़े मानो हों कटा ।
.
'''14'''

क्या हुआ कि हमारे बाज़ार में आना नहीं तुम्हारी रीत ?
खाने की मेज़ पर साथ बैठना हो चुका अब बन्द !
ख़रीदते क्यों नहीं ? कोई तस्वीर ? या फिर कोई गीत ?
क्या ख़याल है ? जैसे तुम हो, आओगे सबको पसन्द ?

'''15'''

होशियार, हमारे बिना नहीं चलेगा काम !
काश, अगर हमें पता चल जाए कैसे गलेगी दाल !
चाहते हो, महोदय, नहीं लगाएँ अब हम अपना दाम !
कविता और तस्वीरें हमारी नहीं मुफ़्त का माल !

'''16'''

पढ़ते हो जो कुछ (ओह, पढ़ते भी हो ?) उसे लिखते आया था यह ख़याल
पूरी कविता लिख डालूँगा सुन्दर सुघड़ छन्दों में।
पर कौन करे अब इतनी मेहनत, क्योंकर हो बदहाल ?
पैसे देगा कौन, बताओ, कौन बाँटे रेवड़ी अन्धों में ।

'''मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य'''
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