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<poem>
नक़दी तो नहीं मगर
उधारी में कोई सिफ़ारिश कर दे
रोज़गार के सूखे में
नौकरियों की बारिश कर दे

सरकारी आँकडों में
नेताओं के भाषणों में रोज़गार की बाढ़ है
कोई दानिश्वर उनके सियासी झूठे दावों को
मज़लूमों की ख़ातिर खारिज़ कर दे

भ्रष्टमुक्त करने को आए थे
परीक्षाओं में जो धांधली करवाए थे
तदबीर उन्हीं की चलती है
उन बेईमानों पर
लगाम लगाने को कोई संत कोई मौलवी
अपने भगवन् अपने खुदा से गुज़ारिश कर दे

नागों ने केंचुल बदल लिया
ज़हर वही पुराना है
भ्रष्टाचार का दंश झेल रहे नौजवां
बदला कहाँ का ज़माना है अगर
दवा है ईमानदारी की तो ऐ! मेरे हुक्मराँ
बेईमानों के नशों में डाल
जिस्मों को उनके फालिज कर दे मगर

ख़बर मुझे कि मुख़्तलिफ़ नहीं ये नया हुक्मराँ
पुराने हुक्मरानों से
सबके सब गुमराह करते बारी-बारी
अपने नए-नए बहानों से
कोई तो जग ज़ाहिर इनकी ये साज़िश कर दे

...नक़दी तो नहीं मगर
उधारी में कोई सिफ़ारिश कर दे
रोज़गार के सूखे में
नौकरियों की बारिश कर दे।
</poem>
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