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अनायास ही / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
पंद्रह साल की आँखों में
प्रेम अनायास ही पसर गया
उस बेंच पर
जिस पर तुम बैठती थी
तुम्हारी अनुपस्थिति में
मेरी बेचैनियाँ उठती बैठती थीं,

कितनी दूरी थी मेरी बेंच से तुम्हारी बेंच की?
शायद साढ़े सात मीटर-
बैक बेंचर होना वो भी एक ही रो में
कभी-कभी पहाड़ सा लगता है न?

मुझे तुम्हारी पीठ हमेशा पहाड़ जैसी लगी
और जब तुम किसी बात पर
आँखे तरेर पीछे देखती-या
हँसती डाली सी झूम कर पीछे घूम तो
पहाड़-सम पीठ कंचन-पट्टिका सी चमकने लगती,

फ़िर तुम तो कुछ दिनों बाद
बिना बात पीछे मुड़-मुड़ कर देखने लगी
जैसे कोई भूला रास्ता मुड़-मुड़ कर देखता है कि
ये वही राह है न जो गंतव्य को जाती है,

तुम्हारा मुड़-मुड़ के देखना
मेरे लिए किताबों से मुँह फेर लेना था
देखो आज तक मैं
किताबों से मुँह मोड़े हुए हूँ जबकि
मेरी ज़िंदगी से जाने के बाद
तुमने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा।
</poem>
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