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निकोटिन / शेखर सिंह मंगलम

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वादों की सिगरेट जला कर
बहुमत का धुआँ उड़ा
मुद्दों की राख उड़ाता चला
नफ़रत के निकोटिन का आदी,

फेंफड़े में झूठ- जैसे क्षयरोग
खाँसता, हाँफता, थूकता मज़हबी बलगम
कहीं मंदिर के पीकदान में तो कहीं मस्जिद के,

उन्माद की बाढ़ एकता की करार काटती,
कटान अनवरत खोह बनाती
चली आ रही नाबालिग सोच के अहाते में,

ज़ोर-ज़ोर से भारत चिल्ला रहा
ज़ोर-ज़ोर से हिंदुस्तान चिल्ला रहा
ज़ोर-ज़ोर से हिन्दू चिल्ला रहा
ज़ोर-ज़ोर से मुसलमान चिल्ला रहा,

सिख-ईसाई चुप हैं,
ये दोनों ज़ोर-ज़ोर से
इंडिया नहीं चिल्लायेंगे क्योंकि
नफ़रत के निकोटिन का आदी-
अभी इस खेत में अफ़वाह नहीं बो रहा,
परती-परौटे में ध्रुवीकरण की फसल नहीं उगती।
</poem>
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