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|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं हैं।
ये पहेली भी हैं।

यदि ऐसा न होता
सड़कों पर लगे
ये मील पत्थर
मानव की जीवन-यात्रा के
अभिन्न अंग बनकर
न रह जाते।

शायद हल
मील पत्थरों के अभाव में
यह कोई तय न कर पाता
उसे जीवन की राह पर
कितनी रफ्तार
से चलना है,
क्योंकि
समय और रफ्तार ही
ऐसे दो पहिये हैं
जो यात्रा सपन करते हैं।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
बनकर रह गये हैं पहेली,
कूटनितिज्ञों के लिये,
कि क्या फूट डाल कर
शासन करने की राजनीति
सभ्य मानव की पहचान है।
</poem>
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