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मसान - 2 / सुशील द्विवेदी

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<poem>
ओह मीत ! मेरे भीतर
कहीं हड्डियों में
चिता की लकड़ियां चीत्कार कर रही हैं
ठंडा मांस
देह से चू रहा है धीरे-धीरे
कहीं दूर से
कुत्तों और बिल्लियों के चीखने आवाजें आ रही हैं
और सियारों की भी l
आसपास मेरे परिजन विलख रहे हैं जोर जोर
कुछ ने मेरी कविताओं को
नदी में विसर्जित कर दिया है
और कुछ तुम्हारे दिए गये वस्त्र जला रहे हैं
वे हमारी स्मृतियों को रेह कर देना चाहते हैं l

मेरे मीत !
खाक़ होने पहले
वे सुलगता छोड़ जायेंगे मुझे
रात के गहरे सन्नाटे में
तुम आना
और रख देना अपनी हथेली मेरी चिता पर
ठीक वैसे ही जैसे पहली बार मेरी हथेली पर रखा था l
</poem>