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Kavita Kosh से
दोनों किनारों को सराबोर कर देती है,
जैसे कभी कोई
गहरी धरती के की गहन शिला परउसके चेहरे को रख रखकर आया ही नहीं !
जैसे केवल जल खम्भे की ओर दौड़ जाते है फूल