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{{KKRachna
|रचनाकार=अर्जुनदेव चारण
|संग्रह=अगनसिनान / डॉ. अर्जुन देव चारण (अनुवाद : नीरज दइया)
}}
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<Poem>
भक्ति और प्रेम का उम्दा संगम है मीरा। राठौड़ परिवार की पुत्री और मेवाड़ के राणा सांगा की पुत्रवधू। सांगा के पुत्र भोजराज की मृत्योपरांत मीरा ने अपना जीवन कृष्ण को समर्पित कर दिया। आज से सैकड़ों वर्षों पहले चलती एक परिपाटी को त्याग एक नया संसार रचने की पहल करने वाली थी मीरा। यह उसके सपर्पण की पराकाष्ठा है कि आज भी जब हम कृष्ण का स्मरण करते हैं तो हमें पहले मीरा का स्मरण हो आता है। अपनी भक्ति के बल पर इस परम पद को प्राप्त करने वाली पूरी दुनिया में वह अकेली एक उदाहरण है।
देह आहूत कर
प्रज्जवलित होती है ज्योति,
रक्त आहूत कर
पूर्ण होता है यज्ञ,
बैर का अंश लेकर
पैदा होता है पुत्र,
लपटे जाग्रत करने
शृंगांर करती हैं लड़कियां,
समय
द्वारपाल बन
बांचता है आखर यश के,
जीवन का सार
अग्नि
या तलवार की धार,
उस युग के
वज्र किंवाड़
तुमने मोर-पंख से खोल दिए।
नहीं होती तुम
तो
बांझ कहलाती
हर एक कोख।
नहीं होती तुम
तो
शृंगारहीन होती
हर एक आशा।
तुम्हारे लुप्त होने पर
कौन जोड़ता
राग और सुर का
संबंध।
तुम्हारे
पांवों से जुड़े
तो घुंघरू पूजनीक हो गए।
तुम्हारे ठुमकों पर
नृत्य नौछावर हुआ।
तुमने
सुगंध को उपजाया
भ्रमरों का
भय दूर किया।
तुम्हारे रंग
रंग गए
सातों रंग।
तुम्हारे इकतारे
गिरवी बैठी
रागनी।
समय को नचाने वाला
तुम्हारे नाज-नखरों
नाचा।
तुम्हारे अवगुण का
यह कैसा स्वभाव
कुदरत के कण-कण में
घुल गई प्रीत।</Poem>
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भक्ति और प्रेम का उम्दा संगम है मीरा। राठौड़ परिवार की पुत्री और मेवाड़ के राणा सांगा की पुत्रवधू। सांगा के पुत्र भोजराज की मृत्योपरांत मीरा ने अपना जीवन कृष्ण को समर्पित कर दिया। आज से सैकड़ों वर्षों पहले चलती एक परिपाटी को त्याग एक नया संसार रचने की पहल करने वाली थी मीरा। यह उसके सपर्पण की पराकाष्ठा है कि आज भी जब हम कृष्ण का स्मरण करते हैं तो हमें पहले मीरा का स्मरण हो आता है। अपनी भक्ति के बल पर इस परम पद को प्राप्त करने वाली पूरी दुनिया में वह अकेली एक उदाहरण है।
देह आहूत कर
प्रज्जवलित होती है ज्योति,
रक्त आहूत कर
पूर्ण होता है यज्ञ,
बैर का अंश लेकर
पैदा होता है पुत्र,
लपटे जाग्रत करने
शृंगांर करती हैं लड़कियां,
समय
द्वारपाल बन
बांचता है आखर यश के,
जीवन का सार
अग्नि
या तलवार की धार,
उस युग के
वज्र किंवाड़
तुमने मोर-पंख से खोल दिए।
नहीं होती तुम
तो
बांझ कहलाती
हर एक कोख।
नहीं होती तुम
तो
शृंगारहीन होती
हर एक आशा।
तुम्हारे लुप्त होने पर
कौन जोड़ता
राग और सुर का
संबंध।
तुम्हारे
पांवों से जुड़े
तो घुंघरू पूजनीक हो गए।
तुम्हारे ठुमकों पर
नृत्य नौछावर हुआ।
तुमने
सुगंध को उपजाया
भ्रमरों का
भय दूर किया।
तुम्हारे रंग
रंग गए
सातों रंग।
तुम्हारे इकतारे
गिरवी बैठी
रागनी।
समय को नचाने वाला
तुम्हारे नाज-नखरों
नाचा।
तुम्हारे अवगुण का
यह कैसा स्वभाव
कुदरत के कण-कण में
घुल गई प्रीत।</Poem>