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|संग्रह=उडीक पुरांण / चंद्रप्रकाश देवल
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<poem>
आज अेक लोकाचार सूं बावड़तां
म्हारै चित्त में
संसार-असार वाळौ सोच नीं हौ, औचक
नित रोज री गळाई
आपरी ढांण में गत-मत
खेतां फूल्योड़ी ही सरसूं
रुत चक्रां रै भार सूं दोलड़ौ व्हियोड़ौ हौ कचनार
हरियल ध्रोब रै कछार
अेकलौ-दोकलौ पाखी चुग्गा बिचाळै
अळसावतौ बैठौ हौ तावड़ै
आपरी गिरस्ती री रींझट में गरक हा रूंख
मकोड़ा आपरै घरै टुरता हा तिण बांध

म्हैं आपरै रच्योड़ै पड़-संसार रै चोवटै हौ
जठै ही थारी देही
जिणरै अंतस धुकै हौ जगजगतौ मसांण
म्हैं जिण में सिलगै हौ, रथी सूतौ
अनळपाखी री गळाई
जित्ती वार बळतो
उत्ती दांण आपरी भसमी सूं पाछौ व्हैतौ सरजीवण
फगत आ जांणण री मंसा में
के थारी देह अर मौत दोनूं में कुण बेसी फूठरौ है ?
म्हैं दोनूं नै नीं देख्या सावळ
कुण मुधरौ वत्तौ
म्हैं दोनूं नै नीं सुणिया कदैई
सिट्टा में दांणं री गळाई
तर-तर पाकता थकां
ही तौ बस आ अेक जांणण री उडीक
के आ तवांणण री घड़ी कद आवैला ?
</poem>
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