भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मन तो इक मन्दिर था प्यारे, कुछ दीप जलाने थे
आग लगाकर नफ़रत की, जनमों का सार गया।
5
'''हम कैसे कहें कि निशदिन तुम्हारी याद आती है।'''
बसी हो मन-प्राण में ऐसी छवि ज्योति जगाती है।।
गले तुमको लगाया था, अभी तक रोम हैं सुरभित।
यही थी साध जनमों की तुमने दी जो थाती है।।
</poem>