भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatDoha}}
<poem>
212
चार पैग जो पी गया, भूला जग का बैर।
गिर नाली के कीच में, माँगे सबकी खैर।।
राष्ट्रवाद भी खोट है, कुछ कहते मक्कार ।
छुपे हुए हैं देश में, ऐसे भी गद्दार।।
आज़ादी का नाम ले, खूब मचाई लूट।
चोरी जब पकड़ी गई, माँग रहे हैं छूट॥
काले धन को पूजते, पहने काला वेश।
लोकतन्त्र की आड़ में, लूटें पूरा देश॥
उम्र बिताई आस में, उसका बने मकान।
गए लुटेरे लूटके, सारे ही अरमान॥
आज़ादी सबको मिले , जिनको रहा जुनून।
उनके सपनों का किया, आज देख लो खून॥
लोकतन्त्र का नाम ले, कपटी खेलें खेल।
आग लगाकर देश में, छिड़क रहे हैं तेल॥
दल बदले हैं रोज ही, बदल गई सरकार ।
दफ़्तर तो बदले नहीं, लाखों भरे विकार ॥
कागज़ पर तिकड़म रची, सिर पीटे है तन्त्र ।
सहस्रफण बैठे हुए, व्यर्थ औषधी , मन्त्र॥
हर कुटिया-द्वारे गए, ढूँढा -कहाँ सुराज।
जैसी ठठरी कल रही, वैसा पिंजर आज ॥
</poem>