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कहन / देवी प्रसाद मिश्र

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<poem>
मैं एक ज़रूरतमन्द की तरह उससे मिलत ।
अमूमन वह किसी रेस्तराँ में मिलने के लिए
कहता । जगह के चुनाव को लेकर मैं घबराता
लेकिन मैं हाँ भी कर देता । मिलते ही वह
कहता कि मुझे तो भूख लगी है । आपको ?
वह चाहता था कि मैं कहूँ कि मुझे तो नहीं
लगी है । लेकिन पैदल, बस, मेट्रो में हलकान
होने के बावजूद मैं स्याह चेहरे और सूखते
होंठों से उससे यह कहता था कि मुझे भूख
नहीं लगती । इससे वह जितना आश्वस्त होता,
शर्मिंदा भी उतना ही ।
</poem>
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