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<poem>
सिर्फ़ रफ़्तार है रस्ते पे नज़र है ही नहीं
जाँ हथेली पे है, क्या जान का डर है ही नहीं

भागते फिरते हो शायद ये ख़बर है ही नहीं
कोई मंज़िल जो नहीं है तो सफ़र है ही नहीं

आदमी पहले समझदार था, इतना तो न था
डर मुसीबत का है, अल्लाह का डर है ही नहीं

माँगने का भी सलीक़ा है समझिए तो सही
आप कहते हैं दुआओं में असर है ही नहीं

वो जो पत्थर है उसे तीर से डर काहे का
दिल को नज़रों से है, तलवार का डर है ही नहीं

ख़ुदकुशी करने पे आमादा है लश्कर शायद
सबके हाथों में है तलवार, सिपर है ही नहीं

ये मुहब्बत का मदरसा है मियाँ! इसमें तो
सब बराबर हैं, कोई ज़ेर - ज़बर है ही नहीं
</poem>
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