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|अनुवादक=रति सक्सेना
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<poem>
गाँव में ना घर बचे है
ना ही घुड़साल, या चारदीवारियाँ
बस, कालिख, खण्डहर
और मृतक, सर्दियों की नम धूप में सड़ते हुए

जब तक हमारी गिनती पूरी हुई
जंगली परछाइयाँ हमारे सिरों पर
मण्डराने लगीं,
सांझ की कड़ुवाहट में पहले ही सब कुछ
चित्रित हो गया था
हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें
लेकिन तभी किसी ने मोमबत्ती जलाई
हम सब मूढ़ मौन हो गए
असलियत से कहीं दूर

मृतक विस्मय से हमें
घूर रहे थे
मानो कि हमारा अस्तित्व ही नहीं हो ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : रति सक्सेना'''
</poem>
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