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बारिश का ,
पात पर जमी धूल के
आखिरी कण को
साथ लेकर,
जमीन की तृष्णा की अंतिम तरस को मिटाने के लिए
बस टपकने को है,
पर क्या
ये पात का धुल जाना
ये धरती की तृषा का
मिट जाना
उस क्षण के बाद
फिर नहीं होगा?
या फिर बारिश ठहर जाना चाहती है पात पर!
-
सूखता आँसू है
बिछोह का?
धरती की तृष्णा
मुँह खोले
खींच लेने को आतुर है
बारिश का अंतिम कण?
पीड़ा किसकी घनीभूत है
बूँद की?
पात की?
धरा की?
या फिर बादल की?
जिसका प्रसंग इस पूरे विवरण में कहीं
आया ही नही?
गडमडाए से प्रश्न,
घटनाओं के टूटते जुड़ते क्रम
जैसे आँखों को हड़बड़ी मची हो
जो देखा, सब भर ले
अपने गलियारों के गोदाम में,
कोई कविता शायद
इसी हड़बड़ी में कुचल जाती है
पात के गाल से फिसलती
बूँद की राह पर
सूखे आँसू के निशान की तरह
थी तो सही
पर अब अवशेष ही शेष।
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