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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
|अनुवादक=
|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
माथे की आँच से
डोरा सुलगता
मोम नहीं गलता
देह बंद नदिया
उफनाती है
नीली फिर काली फिर श्वेत हो जाती है
दार्शनिक उँगलियों से
चितकबरे फूल नहीं
झरती है राख
असहाय होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक सीढ़ी है नीचे उतरकर
दुनिया कहलाने की ।
सागर के नीचे दरार है
किरन कतराती है।
पत्थर सरका कर
राह निकल जाती है
हवा की चोट से
बाँस झुलस जाता है।
हरा-भरा अंधकार होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक शर्त है
ज़िंदा रह जाने की।
</poem>
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|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
|अनुवादक=
|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
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माथे की आँच से
डोरा सुलगता
मोम नहीं गलता
देह बंद नदिया
उफनाती है
नीली फिर काली फिर श्वेत हो जाती है
दार्शनिक उँगलियों से
चितकबरे फूल नहीं
झरती है राख
असहाय होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक सीढ़ी है नीचे उतरकर
दुनिया कहलाने की ।
सागर के नीचे दरार है
किरन कतराती है।
पत्थर सरका कर
राह निकल जाती है
हवा की चोट से
बाँस झुलस जाता है।
हरा-भरा अंधकार होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक शर्त है
ज़िंदा रह जाने की।
</poem>