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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
ग़रीबी को मिटाना है
अमीरी ने कहा है
ग़रीबी कह रही है
सामना डटकर करूँगी !

क्यों मिटाएगी... अरे !
अपराध ऐसा क्या किया है
ये निग़ल जिसको गई
ईमान वह मुझमें जिया है,

दुश्मनी मुझसे अधिक
ईमान से ही स्यात् इसकी
रोक ही जिसने रखी है
सर्वव्यापी रात इसकी,

आदमी के ख़ून में
ईमान जब तक घुल रहा था
छोड़कर बाहर पसरना
आप ख़ुद में खुल रहा था,

किन्तु जब से यह विलासिन
पत्थरों में आ बसी है
फूल की हर आँख
कोटर में कहीं ज़्यादा धँसी है,

भोगकर सारा उजीता
गर्भ अँधियारा रखा है
मौत जैसी जी रही है
अमरफल ऐसा चखा है,

रोज़ हिर-फिर आदमी में
नागफनियाँ बो रही है
भेड़ियों - कुत्तों - गधों से
एक - पहलू हो रही है,

आदमी को आदमी के
पेट से यह पकड़ती है
टूटती जब तक नहीं है रीढ़
तब तक जकड़ती है,

जानती हूँ मैं पड़ौसिन ही नहीं
हूँ सौत इसकी
और यह भी जानती है
सिर्फ़ मैं ही मौत इसकी,

इसलिए ही नासपीटी
कोस अब ज़्यादा रही है...

सोचती है कोसने-भर से ही मैं
इसके डरूँगी
पर जिएगी जब तलक ये
मैं भला कैसे मरूँगी ?

सामना डटकर करूँगी !

19-10-1976
</poem>
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