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दिसम्बर 2019 / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=धरती पर अमर बेल / कुमार कृष्ण
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<poem>
मैं आता हूँ तब जब
तमाम त्योहार चले जाते हैं छुट्टी पर साल भर के लिए
मैं आता हूँ तब जब
पेड़ उतार रहे होते हैं धोने के लिए अपने तमाम कपड़े
मैं आता हूँ तब जब
सर्दी ओढ़ लेती है पुरानी शाल
मैं आता हूँ तब जब
हरकत में आने लगती हैं खूंटियाँ
मेरे बस्ते में भरी होती है बेशुमार चीख- पुकार
लाठियों का संवाद
उम्मीद के, विश्वास के छोटे-बड़े खिलौने
भरे होते हैं तरह-तरह के डर
मैं आता हूँ छोटे हौसलों की पीठ थपथपाने
आता हूँ छोटे दिनों को बड़ा करने
मैं लाता हूँ अपने साथ
भुने हुए मक्की के दानों की खुशबू
मूँगफली के खेतों के सपने
मैं लाता हूँ कम्बल की गरमाहट
मैं आता हूँ आग के पाँव लेकर
तुम जल्दी से निकाल देना चाहते हो मुझे
दरवाजे से बाहर
जला सको जनवरी के स्वागत में फुलझड़ियाँ
तुम भूल जाते हो-
मेरी बारह महीनों की दोस्ती
भूल जाते हो मेरा राग मेरी आग
तुम्हारे लिए मैं कैलेण्डर का अंतिम पृष्ठ हूँ
जिसकी जगह दीवार नहीं कूड़ादान है
पर मत भूलो वही पृष्ठ
तीन सौ पैंसठ दिनों की दुख भरी दास्तान है
मैं जनवरी की उम्मीद उसका विश्वास हूँ
ठंढ में ठिठुरती जीवन की प्यास हूँ
सोचता हूँ-
जब जनवरी चुरा कर ले जाएगी
मेरी पूरी आग
तब कैसे बचाऊँगा मैं-
2019 के मनुष्य को 2020 के लिए
सच कहूँ तो-
सोचना इस समय सबसे बड़ा अपराध है
तुम मुम्बई में सोचोगे तो
मुजफ्फरपुर में पकड़े जाओगे
चण्डीगढ़ में सोचोगे तो रामगढ़ नहीं पहुँच पाओगे
यह भयानक सर्द समय है
जहाँ सच का मुँह टेढ़ा हो गया है
हो सके तो तुम
अलाव जलाने का कोई बेहतर इन्तजाम करो।
</poem>