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अमर्ष / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=धरती पर अमर बेल / कुमार कृष्ण
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<poem>
आने वाले कल-
जब लोग ढूँढ़ रहे होंगे-
लोटा भर पानी
मुट्ठी भर चावल
चुटकी भर प्रेम
तब वे कहाँ से लाएँगे
चलो सामने खड़े पहाड़ से पूछें
वह सदियों से देख रहा है बहुत कुछ
पहाड़ खामोश था
चुप था पूरी तरह
पहाड़ शर्मिंदा था अपने पहाड़ होने पर
वह नहीं बचा सका अपने पेड़ अपनी नदियाँ
ठीक उसी तरह जैसे-
पिता नहीं बचा सके अपनी बेटी का अपहरण
पिता और पहाड़ दोनों के अन्दर खौल रहा है बहुत कुछ
खौल रहा है अमर्ष
बार-बार बार-बार।
</poem>