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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
अब तो लगता है कि इस तरह से जीना होगा
प्यास लगने पे लहू अपना ही पीना होगा

किसको फुर्सत है कि गम बांट ले गैरों का यहाँ
अपने अशक़ो को तुम्हे आप ही पीना होगा

यह दरिंदो का नगर है यहाँ इंसान कहाँ
जीने वालों को यहां जहर भी पीना होगा

हाथ में सबके हैं खंजर यहाँ क़ातिल हैं सभी
ऐ मिरे दोस्त यहाँ होंठो को सीना होगा

सोचता हूँ कि कहाँ सर ये झुकाऊँ मूसा
किस जगह काशी कहाँ अपना मदीना होगा
</poem>