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{{KKRachna
|रचनाकार=राहुल द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
सोचता था कि
मैं भी
लिखुंगा कुछ नया सा
हर सुबह
कि सुबह की सुनहली धूप
घास पर बिखरे मोती
मैं भी निहारूँगा
अपनी नजर से
हर रोज
पर...
हर रोज एक कविता?
हो न सका
कमबख्त!
महीनों हो गए
कुछ सोचे हुए
कुछ लिखे हुए
मैं
विचारशून्यता को
जी रहा हूँ अब
समय के साथ साथ!
</poem>
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सोचता था कि
मैं भी
लिखुंगा कुछ नया सा
हर सुबह
कि सुबह की सुनहली धूप
घास पर बिखरे मोती
मैं भी निहारूँगा
अपनी नजर से
हर रोज
पर...
हर रोज एक कविता?
हो न सका
कमबख्त!
महीनों हो गए
कुछ सोचे हुए
कुछ लिखे हुए
मैं
विचारशून्यता को
जी रहा हूँ अब
समय के साथ साथ!
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