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|रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
लाल ईंट का बना हुआ है कमरा मेरा,
छोटा है, सन्दूक जिस तरह;
इससे छोटी क़ब्र मिलेगी; फिर कमरे की
भला, शिकायत करूँ किस तरह ।

यहाँ दुबारा मैं आया हूँ, जैसे कोई
लाया मुझको यहाँ खींचकर,
दीवारों पर चिपका है काग़ज़ मटमैला,
दरवाज़ा करता है चर-चर ।

कुण्डी खोली नहीं कि सहसा प्रकट हुईं तुम,
लट मेरा माथा सहलाती,
कैसा अद्भुत लगता है फिर-फिर अधरों को
पाटल-पंखुरियाँ छू जातीं ।

वस्त्र तुम्हारे सर-सर करते, जैसे करतीं
बर्फ़ गिराती सर्द हवाएँ;
करता हूँ सौ बार तुम्हारा स्वागत सुन्दरी,
देता हूँ सौ बार दुआएँ ।

निष्कलंक तुम नहीं, व्यर्थ इस पछताना,
तुम ऊँची विश्वास-नसेनी लेकर आईं,
और उतारी नीचे तुमने मेरी भूली जीवन-पुस्तक,
जैसे किसी आलमारी से,
और फूँककर उसपर बैठी धूल हटाई ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन'''
</poem>
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