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Kavita Kosh से
"बात हुई क्या ?"
"निकली सबसे बुरी फ़सल क्या इसी खेत की ?"
"उगी, बढ़ी, दाने लाई — क्या कमी रह गई ?"
"ऐसी कोई बात नहीं है !"
"सबसे अच्छी फ़सल हमीं हैं ।"
"कितने पहले हम बालें भर गईं, झुक गया डण्ठल-डण्ठल !"
"इसीलिए क्या उसने धरती जोती-बोई
उपज हमारी पतझड़ की झंझा में बिखरे ?"
इन प्रश्नों का दर्द-भरा उत्तर लेकर के
गर्व-भरे दो झोंके आए :
"काम तुम्हारा करनेवाला चला गया अब ।
खेत जोतते-बोते उसने कब जाना था,
वक़्त काटने का आएगा, वह न रहेगा ।
अब वह खा-पी नहीं सकेगा — उलटे, कीड़े
उसकी छाती को खा-खाकर चलनी करते,
वह मुँह खोल नहीं पाता है ।
और बनी थी जिन हाथों से क्यारी-क्यारी
अब वे सूख हुए हैं लकड़ी ।"
"आँखों पर ऐसी झिल्ली है, देख न पातीं ।
उसकी वाणी, जो उसके अवसादों को मुखरित करती थी,
मूक हो गई ।
जो हलवाहा हल का हत्था कसकर थामे
खेत जोतते सोचा करता,
और सोचते जोता करता,
दबा हुआ मिट्टी में सड़ता !"
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन'''