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निर्मम यथार्थ / शील

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|अनुवादक=लाल पंखों वाली चिड़िया / शील
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<poem>
बड़ा निर्मम है यथार्थ –
कविता के लिए ।
कला मुँह चुराती,
शैली दुम दबाती,
भाव हिचकियाँ लेते,
शैतान की आँत दिनोंदिन बढ़ती जाती ।

सिर चढ़े वाक्य –
विचार ऐंठते हैं मुझपर ।
बड़ा निर्मम है यथार्थ –
कविता के लिए ।

आधुनिक मेकप,
नारी माडल,
मदमाता यौवन,
लुभावनी बाज़ारू मुस्कान,
साड़ी की दुकान ।

भट्ठे में ईंटें ढोती मज़दूरिन,
पसीना-पसीना आँचल,
ईंटों के बोझ से दबी मुस्कान,
निर्मल यौवन,
किसे अर्थ दूँ ।
बड़ा निर्मम है यथार्थ –
कविता के लिए ।

म्यूनिस्पैल्टी की सड़क –
सड़क के खुले मेनहोल में – आदमी के बच्चे की लाश
गिद्धों का डेरा, कौओं का जमघट,
परे – बग़ावत का झण्डा ।

आँगनबाड़ी की अध्यापिका के –
नोच डाले अंग-अंग –
सामन्ती कुत्तों ने,
गाँव को साँप सूँघ गया ।
बड़ा निर्मम है यथार्थ –
कविता के लिए ।

विलासिता की अन्धी दौड़ में गुँथी युवा चेतना,
दूरदर्शन, आकाशवाणी का घिनौना –
सरकारी आत्मबोध
सांस्कृतिक अवमूल्यन और कविता ।
सौन्दर्यशास्त्री समीक्षक
कब तक प्रतिमान गढ़ते रहेंगे ?
कब तक कविता आई-गई होती रहेगी ?
बड़ा निर्मम है यथार्थ –
कविता के लिए ।

22 फ़रवरी 1990
</poem>
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