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बचलाहा / दीपा मिश्रा

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<poem>
रातुक बचल सोहारीमे
बड़ सुआद होइए
माछक पुच्छी
सबसँ नीक
आमक आंठी त' दिव्य
बेसी कहाँ सरल छैक
कनेक बना लिए
बंबई आम थिक
फेकब कोना
नीक लागत
रसगुल्लाक रस
दहीक घोरमे मिला दियौ
नहियो बचल
त' कोनो बात नै
खेनाइ पहिने
पुरुष नेना सब खायत
थाड़ी कथी ले दोसर लेब
एहिमे खा लिए ने
देखू कतेक चीज
छोड़ने छथि
दुइर कथी ले करब
आइंठ खाइत
आंठी चोभैत
दहीक घोर पीबैत
कियाक नै ओ सोचलक
बासी बचल सोहारी
तरकारी
दुइर होइत समान
सब एके गोटाक उदरमे
परिवारमे जाइत छल
की कहियो एहि लेल
सोचल गेल जे भोज भातमे
पुरुष किया पहिने?
कियाक ने संगे ?
कियाक ने स्त्री पहिने?
बात छोट छिन अछि
किंतु एतय दोषी स्वयं स्त्री
अपन बेटी पुतोहुके
सिखेबे ने केलैन जे
खराब चीजकेँ
फेक देबाक चाही
बसिया सब लेल बसिया
अधिकार मांगल नै जाइत छैक
अधिकार अर्जित करय पड़त
अपना आपकेँ सेहो
ओतबे इज्जत दी
ओतबे मान दी
नहि त बासी आ ताजाक भेद
जीह सेहो बिसरि जायत
आर अहाँ इहा कहैत रहब
जे बासी सोहारी
बड़ सुअदगर
</poem>
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