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जब तुम जनेऊ लपेट रहे थेकविता में कुछ दूर एक सुन्दर बच्चा अपने होने की गवाही दे रहा थाजब मन्त्रों की बौछार के बीचतुम भाग्य का ठप्पा लगा रहे थेकुछ दूर वह बच्चा सँघर्ष का पहला पाठ पढ़ रहा थाजब तुम अपने नाकारापन पर गँगाजल छिड़क रहे थेऔर उस बच्चे को हर कहीं रोक रहे थेतुम्हारी मूर्खता तुम्हारी चोटी की तरह लहरा रही थीतुम उसकी बुद्धि को पहचानाने से इनकार करते रहेवह कोई था एकलव्य या उसका वँशज रोहित वेमुला तुमने कहा वे चहांरदीवारी के अन्ददर नहीं आ सकतेअपने स्वार्थ से समय को सिद्ध करते हुएतुमने उन्हें अपनी थालियों से दूर रखाकुर्सी पर विराजमान तुमउन्हें अपने पैरों के पास बिठाने को क्रान्ति समझते रहेतुम स्त्रियों को कभी राख तो कभी पत्थर बनाते चलते रहेतुम्हारा पुरुषत्व उन पर गुर्राता रहाफिर एक दिन तुमने कहा कि घर ही ख़ाली संशोधन कर दो ! तुम्हारे खड़ाऊँ तुम्हारी धोती तुम्हारा अँगौछा जनेऊमस्तक पर उभरा हुआ चन्दन तुम्हारा भोजनसब उनका श्रम हैतुम नंगे हो अपनी जाति अपने प्रतीकों अपने धर्म के भीतर"तुम विधर्मी सब गद्दार हो" कहने वाले तुमज़रा नज़रें घुमाकर देखो एक लम्बी कतार हैसौन्दर्य से भरा हुआ एक ’शाहीन बाग़’सुनो वे आँखे तुमसे क्या कह रही हैं?मैंने अभी-अभी सुना — ‘हिटलर गो बैक’ और सबसे ऊँची आवाज़ उस स्त्री की हैजिसे तुम अपने शास्त्रों के खौलते हुए तेल मेंडुबोते रहे थे बार-बार । कवि
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