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|रचनाकार=अमीता परशुराम मीता
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<poem>
आप का हम से बेवफ़ा होना
हो गया तय कि है जुदा होना

कब जमीं पे वो पाँव रखते हैं 
रास आया जिन्हें ‘ख़ुदा’ होना

मैं फ़रिश्ता नहीं इक इंसाँ हूँ 
लाज़मी है कोई ख़ता होना

काट कर उम्र क़ैद साँसों की
रूह ने तय किया रिहा होना

अजनबी हैं जो राह-ए-उलफत से
क्या समझ पायेंगे फ़ना होना

ख़ुद से जो नाशनास हैं ‘मीता’
क्या निभायेंगे रहनुमा होना
</poem>
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