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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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<poem>

अंधकार
ये कैसा छाया
सूरज भी रह गया
सहमकर
सिंहासन पर रावण बैठा
फिर से
राम चले वन-पथ पर।

लोग कपट के
महलों में रह,
सारी उमर
बिता देते हैं
शिकन नहीं
आती माथे पर
छाती और फुला लेते हैं
कौर लूटते हैं भूखों का
फिर भी
चलते हैं इतराकर।

दरबारों में
हाजिर होकर,
गीत नहीं हम गाने वाले
चरण चूमना
नहीं है आदत
ना हम शीश झुकाने वाले
मेहनत की
सूखी रोटी भी
हमने खाई थी गा- गाकर।

दया नहीं है,
जिनके मन में
उनसे अपना जुड़े न नाता
चाहे सेठ मुनि -ज्ञानी हो
फूटी आँख न हमें सुहाता
ठोकर खाकर गिरते-पड़ते
पथ पर
बढ़ते रहे सँभलकर।
[सितम्बर 2008]

</poem>