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{{KKRachna
|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य
}}
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<poem>
मैंने धूप के दिनों में बारिश होते देखी मचलती
और देखा अंधकार को उजाले से जगमगाते
यहाँ तक कि प्रतीत हुई झाड़ी विद्युत में बदलती
हाँ जमी हुई वर्फ को देखा चमकते व गरमाते
और मधुर वस्तुओं में देखा है स्वाद कड़वाहट का
और जो है कड़वा उसका मधुर स्वाद पाया
शत्रुओं को आस्वादन करते पाया प्रेम की मुस्कुराहट का
अच्छा और घनिष्ठ मित्र जो मिलने तक न आया।
फिर भी प्रेम की देखी हैं मैंने कई बातें विचित्र
जिसने भर दिये हैं मेरे घाव, नये घाव देकर
उसने बुझा दी है पूर्व में मेरी आंतरिक अग्नि।
जो जीवन उसने दिया था परिणामतः अंत में पवित्र
अग्नि जो कर देती थी उन्मत्त, रही मुझसे बचकर
एक बार बचा प्रेम से, अब और अधिक जलाती प्रेमाग्नि।
</poem>
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मैंने धूप के दिनों में बारिश होते देखी मचलती
और देखा अंधकार को उजाले से जगमगाते
यहाँ तक कि प्रतीत हुई झाड़ी विद्युत में बदलती
हाँ जमी हुई वर्फ को देखा चमकते व गरमाते
और मधुर वस्तुओं में देखा है स्वाद कड़वाहट का
और जो है कड़वा उसका मधुर स्वाद पाया
शत्रुओं को आस्वादन करते पाया प्रेम की मुस्कुराहट का
अच्छा और घनिष्ठ मित्र जो मिलने तक न आया।
फिर भी प्रेम की देखी हैं मैंने कई बातें विचित्र
जिसने भर दिये हैं मेरे घाव, नये घाव देकर
उसने बुझा दी है पूर्व में मेरी आंतरिक अग्नि।
जो जीवन उसने दिया था परिणामतः अंत में पवित्र
अग्नि जो कर देती थी उन्मत्त, रही मुझसे बचकर
एक बार बचा प्रेम से, अब और अधिक जलाती प्रेमाग्नि।
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