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<poem>
सिर्फ़ लफ़्ज़ों से तुम्हारा काम चल जाता है क्या
दिल में जितना दर्द होता है निकल जाता है क्या

भीड़ में होता हूँ तो पहचानता कोई नहीं
सोचता हूँ भीड़ में चेहरा बदल जाता है क्या

ख़ौफ़ की दीवार के पीछे छुपोगे कब तलक
जिस से डरते हो वो लम्हा ऐसे टल जाता है क्या

उसने पूछा है बड़ी मासूमियत से इक सवाल
आँसुओं की आँच से पत्थर पिघल जाता है क्या

इश्क़ की जादूगरी पर शक़ नहीं मुझ को मगर
ये बता इस दौर में जादू ये चल जाता है क्या

जैसे मेरा दिल मचल जाता है तेरे वास्ते
तेरा दिल भी बेसबब ऐसे मचल जाता है क्या

जिस्म के काँटे तो मुमकिन हैं निकल जाएँ 'ज़िया'
रूह में चुभ जाये जो काँटा निकल जाता है क्या।

</poem>
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