भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ईप्सिता षडंगी |अनुवादक=हरेकृष्ण...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ईप्सिता षडंगी
|अनुवादक=हरेकृष्ण दास
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}
<poem>
गांधी
एक प्रतीक है
समाहार है कुछ ’लोगों’ ( logo) का
एक ऐसा ब्राण्ड
जिसके पीछे आसानी से छु्पाए जा सकते हैं
सारे कर्म - अपकर्म और कुकर्म ।
गोलाकार चश्मे की छवि बनाकर
ढिंढोरा पीटा जा सकता है स्वच्छता का;
बदला जा सकता है
अपनी झोली में छुपाए हुए पाप को
बनी बनाई कहानियों की आड़ में;
गांधी की वह लाठी भी अब
एक चौकन्नी पहरदार है जैसे;
घुटनों तक भी न पहुँचने वाली
तुम्हारी वह धोती छोटी-सी
अब मज़दूरों के लिए एक प्रतीक मात्र है
सम्वेदना का;
तुमने कभी पहना ही न थी जो
वह गांधी टोपी अब एक
अनोखा वसन है
अपने बदन की गन्दगी को छुपाने का ।
घड़ी की आड़ में
समय का ज्ञान देने वाला इनसान
ख़ुद बेफ़िक्र होता है हमेशा वक़्त को लेकर !
आभूषण से लेकर दर्शन तक
हर एक चीज का तिजोरी हो तुम बापू !
हर कोई ले जाता है उतना तुमसे
बस, जितना चाहिए होता है उसे ।
इससे ज़्यादा है क्या
हमें सौंपी हुई तुम्हारी ये स्वतंत्रता ?
किसी को शायद मिल जाता होगा कुछ ऐसा
जो है — इंसानियत, आदर्श और दर्शन से परे,
पर मुझे नज़र आ्ती है सिर्फ़ आँसुओं की धार
बहती हुई तुम्हारी नज़रों से हमेशा ।।
काश !
कभी वापिस लौटकर आ सकते तुम !
मूर्ति से मानवजीवन तक की यात्रा
ज़रा भी मुश्किल तो नहीं तुम्हारे लिए, बापू !
बिल्कुल भी मुश्किल तो नहीं ।।
'''ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास'''
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=ईप्सिता षडंगी
|अनुवादक=हरेकृष्ण दास
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}
<poem>
गांधी
एक प्रतीक है
समाहार है कुछ ’लोगों’ ( logo) का
एक ऐसा ब्राण्ड
जिसके पीछे आसानी से छु्पाए जा सकते हैं
सारे कर्म - अपकर्म और कुकर्म ।
गोलाकार चश्मे की छवि बनाकर
ढिंढोरा पीटा जा सकता है स्वच्छता का;
बदला जा सकता है
अपनी झोली में छुपाए हुए पाप को
बनी बनाई कहानियों की आड़ में;
गांधी की वह लाठी भी अब
एक चौकन्नी पहरदार है जैसे;
घुटनों तक भी न पहुँचने वाली
तुम्हारी वह धोती छोटी-सी
अब मज़दूरों के लिए एक प्रतीक मात्र है
सम्वेदना का;
तुमने कभी पहना ही न थी जो
वह गांधी टोपी अब एक
अनोखा वसन है
अपने बदन की गन्दगी को छुपाने का ।
घड़ी की आड़ में
समय का ज्ञान देने वाला इनसान
ख़ुद बेफ़िक्र होता है हमेशा वक़्त को लेकर !
आभूषण से लेकर दर्शन तक
हर एक चीज का तिजोरी हो तुम बापू !
हर कोई ले जाता है उतना तुमसे
बस, जितना चाहिए होता है उसे ।
इससे ज़्यादा है क्या
हमें सौंपी हुई तुम्हारी ये स्वतंत्रता ?
किसी को शायद मिल जाता होगा कुछ ऐसा
जो है — इंसानियत, आदर्श और दर्शन से परे,
पर मुझे नज़र आ्ती है सिर्फ़ आँसुओं की धार
बहती हुई तुम्हारी नज़रों से हमेशा ।।
काश !
कभी वापिस लौटकर आ सकते तुम !
मूर्ति से मानवजीवन तक की यात्रा
ज़रा भी मुश्किल तो नहीं तुम्हारे लिए, बापू !
बिल्कुल भी मुश्किल तो नहीं ।।
'''ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास'''
</poem>