भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवधेश कुमार |अनुवादक= सूरज प्रकाश...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवधेश कुमार
|अनुवादक= सूरज प्रकाश का संस्मरण
|संग्रह=
}}
<poem>
छोटा कद, मुश्किल से पाँच फ़ुट, साफ़ गोरा रंग, मंगोलियन चेहरा-मोहरा, छोटे छोटे क़दमों से चलता हुआ, कभी भी हड़बड़ी में नहीं, चेहरे पर चिपकी स्‍थायी मुस्कुराहट, लम्बे बाल और हमेशा ही अपने आप में मस्त रहने वाला। वह बहुत सम्भल कर बोलता था। कुछ खास कहने के लिए वह अतिरिक्‍त समय लेता था। ये अवधेश था।

बेहतरीन कवि, चित्रकार, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, अभिनेता, निदेशक, मंच की बैक स्टेज की सारी गतिविधियाँ अकेले सम्भालने वाला, कविता पोस्टर बनाने में माहिर, अध्यापक, भयँकर पढ़ाकू, क़िस्सागो, किताबों के बेहद शानदार कवर डिजाइन बनाने वाला यारबाश और मलंग ! सच कहूँ, तो वह क्‍या नहीं था और उसने शौक़ और रोज़गार के लिए क्या - क्या नहीं किया।

वह अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित चौथा सप्‍तक का कवि था, उन्‍हीं के द्वारा सम्पादित नया प्रतीक में नियमित रूप से छपता था, कभी भी उनसे मिलने जा सकता था, शंकर्स वीकली द्वारा आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता में पहला पुरस्‍कार पा चुका था ।

एक बार जब उसका घर नए सिरे से बन रहा था और उसे ढेर सारे पैसों की ज़रूरत थी, तो वह दिल्‍ली में एक ही हफ़्ते में लगभग सभी प्रकाशकों के लिए दो - ढाई सौ कवर बनाकर अपनी ज़रूरत के पैसे लेकर गया था । उसकी कविताएँ और चित्रांकन किसी भी स्तरीय पत्रिका में देखे जा सकते थे । चित्रकार होने के नाते उसकी हैण्डराइटिंग भी बहुत ख़ूबसूरत थी ।

वह बेहद प्‍यारा दोस्‍त था। इतना कि उससे जरा सा भी औपचारिक नहीं हुआ जा सकता था। यहां तक कि उसके दोस्‍त जब उसे अपने दफ्तर का काम दिलाते और समय पर पूरा न होने पर प्रिय महोदय के सरकारी संबोधन वाली चिट्ठी उसे लिखते थे तो वह बेहद खफा हो जाता था।
अवधेश किसी जॉब से टिकना नहीं जानता था। देहरादून और मसूरी के बेहतरीन स्‍कूलों में उसे काम मिले, दिल्‍ली के प्रकाशकों ने उसकी काबलियत देख कर उसे मनमाने वेतन पर अपने यहां रखना चाहा लेकिन अवधेश ने शायद ही पूरे जीवन में कोई नौकरी एक महीने से ज्‍यादा की हो।
वह बहुत पीता था। वैसे उसे किसी भी तरह की शराब से परहेज नहीं था लेकिन कच्‍ची और देसी दारू में उसका मन ज्‍यादा रमता था। जब दिल्‍ली में कहीं भी सार्वजनिक स्‍थल पर पीने की मनाही थी तो वह निर्मल वर्मा के पात्रों की तरह वह कनाट प्‍लेस से बाराखंबा रोड पर शाम के धुंधलके में मंडी हाउस की तरफ आते हुए हाफ बोतल घूँट घूँट भरते हुए नीट ही खत्‍म कर चुका होता था। यही शराब ही उसे सिर्फ उनचास बरस की उम्र में लील गयी थी। शराब के आगे वह कुछ नहीं देख पाता था। जिस दिन देहरादून के कबाड़ी बाजार में फुटपाथ पर बेशकीमती किताबें बिकने के लिए नजर आतीं, ये समझना मुश्‍किल नहीं होता था कि अवधेश ने आज अपनी दारू का इंतजाम कैसे किया होगा।
उसे पता चल गया था कि वह गोद लिया गया है और अपने इन माता पिता की असली संतान नहीं है, इस बात का पता चलने पर उसने खुद को शराब के हवाले कर दिया था। हालांकि उसकी मां बहुत पहले मर चुकी थी और पिता ने ही पाला था।
वह मिलने या काम करने का वादा करके महीनों नज़र न आये, ये उसके सब दोस्‍त जानते थे। वह अपने आपको जस्‍टीफाई करना जानता था। उसे न तो इग्‍नोर किया जा सकता था और न ही वह इग्‍नोर किया जाना सहन कर सकता था।
उसका एक ही कविता संग्रह जिप्‍सी लड़की छपा था। 1999 में लीवर में पानी भर जाने पर जब वह गुजरा तो उसके कागजों में हजारों कविताएं, रेखांकन, सैकड़ों नायाब पेंटिंग्‍स वगैरह रही होंगी। न जाने कौन कबाड़ी तौल कर ले गया होगा।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits