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|रचनाकार=निकानोर पार्रा
|अनुवादक=राजेश चन्द्र
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<poem>
देवियो और सज्जनो !
यह हमारा अन्तिम वक्तव्य है
– हमारा पहला और अन्तिम वक्तव्य –
कवि ओलिम्पस से नीचे उतर आए हैं
पुराने लोगों के लिए
कविता एक विलासिता की चीज़ थी
पर हमारे लिए
यह एक परम आवश्यकता है
हम नहीं जी सकते कविता के बग़ैर ।

हम परित्याग करते हैं
स्याह चश्मे की कविता का
लबादे और तलवार की कविता का
गर्वोन्नत माथे की कविता का
हम इसके बजाय प्रस्तावित करते हैं
खुली आँखों वाली कविता
रोयेंदार वक्ष वाली कविता
अनावृत मस्तक वाली कविता ।

देवियों और देवताओं पर हमें यक़ीन नहीं है।
कविता को ऐसा होना चाहिए जैसे :
गेहूँ के खेतों में एक लड़की –
या फिर वह निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं ।

कवि हैं यहाँ
यह देखने को कि पेड़ टेढ़े-मेढ़े पैदा न हों ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र'''
</poem>
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