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प्यासा पथिक / कविता भट्ट

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अंकुरण हो न हो, तुम प्रस्फुटन चाहते,
कैसे हो, कतारें तुमने कभी बोयी नहीं।
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ब्रज अनुवाद:
पियासौ पंथी/ रश्मि विभा त्रिपाठी
 
मीलन के पाथर गनत भएँ सिरे पहर
अँखियाँ अबहूँ लौं सोई नाहिं
एक ऊ धकधकी इमि नाहिं जु
सुरति मैं तोरी कबहूँ खोई नाहिं
घरी घरी गुहि रईं सुसुकिनि अँखियाँ
पै पलकैं हौं अभै भिंजोई नाहिं
जीवन की कहनि करुई होति गई
पै आस हौं अभै डुबोई नाहिं
पियासौ पंथी बनि रतियनि कौं,
अंजुरीं तुव कबहूँ सँजोई नाहिं
बिरथ जे हिलनि की लर सपनीली
साँचेहुँ तुव कबहूँ पोई नाहिं
अंकुराइबौ होइ न होइ तुव फूलिबौ चहौ
कत होइ, पाँत तुव कबहूँ बोई नाहिं।
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