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दरारें / रंजना जायसवाल

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<poem>
दीवार की दरारों के बीच
झाँकता पीपल का पेड़
कुछ हम जैसा ही तो है
न किसी ने प्यार से रोपा
न ही उसके अस्तित्व की चिंता में
नजरों से सींचा
और न किसी ने
स्निग्ध हाथों से उसे संभाला
फिर भी वह जी गया
क्योंकि वह बज्जर था
रोपना, सींचना और संभालना
उसके भाग्य में नहीं
कुछ ऐसा ही तो हमारी लकीरों में था
दाईं ने पेट को टटोल कर कहा था
लड़की हुई तो बच जाएगी
लड़का होगा तो झेल नहीं पायेगा
कोई दुआ नहीं कोई मन्नत नहीं
न कोई चाहत
और न ही आगमन पर कोई स्वागत,
फिर भी...
अपने अस्तित्व को बचाते
जी लेते हैं हम
और जन्म देते हैं
दूसरे अस्तित्व को...
</poem>
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