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<poem>
बचपन में
वर्णमाला सीखने की
ऐसी लगन थी
उसके भीतर कि वह
अपनी अँगुली को
क़लम बना लेती
और ज़मीन को काग़ज़

इतनी अलंकारप्रिय थी
कि बबूल के
फलों को मोड़कर
कलाइयों में
कँगन की तरह डाल लेती
महुए के फूलों को गूँथकर मटरमाला पहनती
भूने हुए चने को छीलकर
सोने के लॉकेट की तरह
पहनने के बारे में सोचती

मुल्तानी मिट्टी
और हल्दी पिस जातीं
पत्थर के नीचे
उसे कान्ति देने के लिए
मुस्कान ने उसे
अपने होंठ दिए थे
भिण्डियों ने अँगुलिपना
तीसी के फूलों ने
नीली - नीली बत्तियाँ
एकान्त रुदन और
सामूहिक हँसी में
अडिग विश्वास था उसका

अचानक उसने अपना
साँचा तोड़ दिया था
जैसे रात भर बाद की लौकी
या हो गई हो
25 दिसम्बर
या टूटी म्यान से
दिख रही हो
तलवार की नोक

कैरियर में बैग दबाकर
अपनी खड़ी साइकिल को देखती तो
विश्राम और तेजी में एक प्रतियोगिता
छिड़ जाती
साइकिल की गद्दी पर
हाथ फेरती तो
साइकिल सारंगी, बादल, पवन या चेतक
जैसी सिहर जाती
बारहवें किलोमीटर तक
पहुँचकर वह
ग्यारहवें किलोमीटर तक
पहुँचे समय की प्रतीक्षा
कर रही है वह

फिलहाल आण्डाल, अक्क, मीरा, लक्ष्मीबाई, ऊदादेवी, तलाश कुँवरि,
महादेवी, इंदिरा, कल्पना चावला, मदाम क्यूरी
आदि बनने के पहले
वह साइकिल से
सावित्रीबाई फुले स्कूल पहुँचना चाहती है

आकाश की बिजलियो !
गिरना तो किसी ठूँठ पर गिरना
भारी वाहन के चालको !
अपनी बेटी को याद करते हुए चलाना
उड़ते हुए परिन्दो !
उसे छाया करते हुए उड़ना
शुभकामनाएँ
पत्रकारो ! कि रिजल्ट आने पर
मुखपृष्ठ पर उसका फ़ोटो छाप सको
लेकिन हे साइकिल की चेन !
उतरना तो बीच में मत उतरना
</poem>
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