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<poem>
अभी कहाँ मानुष बन पाया
गढ़ने वाला कहाँ चाक को अन्तिम बार घुमाया

कितने साँचे बने और टूटी कितनी छवि-छाया
हुई कहाँ चुम्बन की इति या इति प्रवेश परकाया
रति का अहका जस का तैसा कामदेव छुछुवाया
अहं का कुत्ता हर ऊँचे पर पिछली टाँग उठाया

मिली कहाँ वह खुशी कि जिसमें सद्यजात शिशु गाए
रुकी कहाँ वेदना प्रसव की कि कुतिया मुसकाये
अभी झुकेंगी डालें कितनी कितने तने तनेंगे
आने वाले कल को कितने दर्पन अभी बनेंगे

टूट चुकीं कितनी तलवारें कितने लोथ गिरे
जल में जल की तरह कहाँ दो लोग अभेद मिले
मन का मानुष बनने में कितने हो गए सफाया
एक अदद यह अष्टभुजा भी इसी दौर में आया
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