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Kavita Kosh से
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, महाराज !
राजनीतिक फतवेवाजी फतवेबाज़ी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह रहा जाए, तो —
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा ज़रा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर