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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
श्वेताम्बरे झनकारिये वीणा प्रभा विस्तार हो।
तव पुत्र उर नव चेतना की शक्ति का संचार हो।

उद्दाम जागी लालसा तव अर्चना रसना करे,
वागीश्वरी जिससे विकल-संसार का उपकार हो।

उत्कर्ष में बाधक चरम अज्ञानता हर लीजिये,
दुश्वारियों का अंत हो आलस्य का संहार हो।

साहित्य का शृंगार हो लालित्य हो हर शेर में,
अनुनय शिथिल मम लेखनी में वह अनूठी धार हो।

माँ शारदे नत शीश पर निज कर कमल रख दीजिये,
आशीष दें माँ चिर प्रतीक्षित स्वप्न मम साकार हो।

संपूर्णता को प्राप्त हो स्वर ब्रह्म की आराधना,
जो पार भव सागर लगा दे हाथ वह पतवार हो।

चढ़ते रहें नित सीढ़ियाँ गतिशील पग परमार्थ की,
कमलासिनी ‘विश्वास’ की यह प्रार्थना स्वीकार हो।
</poem>
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