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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
इक नज़र बालिग़ से सीरत भी परखना चाहिये।
सिर्फ़ सूरत पर नहीं दिल को मचलना चाहिए।

आग में जलता हुआ ये मुल्क़ अपना देखकर,
क्या क़लम को आपके ख़ामोश रहना चाहिये।

लाख हों मजबूरियाँ दिल में मुहब्बत है अगर,
आपकी आँखों से मेरा दर्द बहना चाहिये।

चाहिये बढ़ना मदद को हाथ गाढ़े वक़्त पर,
मत कभी भी हस्बे मौसम रूख़ बदलना चाहिये।

ख़त्म भ्रष्टाचार से बचने की उम्मीदें हुईं,
अब यक़ीनन वख़्त को पन्ना पलटना चाहिये।

सुन सके फ़रियाद जो मज़लूम की मासूम की,
वो फ़रिश्ता एक ऊपर से उतरना चाहिये।

दर्द जड़ से ख़त्म हो ‘विश्वास’ कहती अक़्ल है,
दिल मगर चाहे चिराग़े-दर्द जलना चाहिये।
</poem>
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