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कोई भी चल न सका, साहिबे अफ़कार चले
राह वह तल्ख़ है जिस राह पे फ़नकार चले
जाम दो-चार उतरते ही गले से नीचे
झूमते झामते गाते हुए मयख्वार मै ख्वार चले
कल गुलों से जो कहा करते थे बस दूर रहो
मुंतज़िर था के कोई काफ़िला उस पार चले
गुलशने-गुल शने हुस्न में देखा है ये अक्सर ऐ 'रक़ीब'
पावं से रौंद के सब कलियों को ज़रदार चले
 
</POEM>
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