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{{KKRachna
|रचनाकार=राकेश कुमार
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
पूर्णता की आस लेकर जी रहा हूँ।
हर घड़ी पर रिक्तता ही पी रहा हूँ।
कौन किसको चाहता है चाहने को,
काम होते ख़त्म बाहर ही रहा हूँ।
है बुलाता पास कह ख़ामोश रहना,
लब नए ढब से हमेशा-सी रहा हूँ।
सोचता हूँ क्या किया जीवन सफ़र में,
इस वृहत संसार की चींटी रहा हूँ।
है नहीं जाती अकड़ कुछ याद करके,
मैं किसी की आँख का पानी रहा हूँ।
</poem>
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पूर्णता की आस लेकर जी रहा हूँ।
हर घड़ी पर रिक्तता ही पी रहा हूँ।
कौन किसको चाहता है चाहने को,
काम होते ख़त्म बाहर ही रहा हूँ।
है बुलाता पास कह ख़ामोश रहना,
लब नए ढब से हमेशा-सी रहा हूँ।
सोचता हूँ क्या किया जीवन सफ़र में,
इस वृहत संसार की चींटी रहा हूँ।
है नहीं जाती अकड़ कुछ याद करके,
मैं किसी की आँख का पानी रहा हूँ।
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