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<poem>
पत्थर ने शीशे से पूछा, क्या है तेरा हाल ?
काँच भला कैसे बोले सच, तू ही मेरा काल !

जब-जब झूठ उठाता पत्थर, सच का कम्बल ओढ़,
तब-तब ऐसा लगने लगता, जस काले में दाल।

नहीं समझने वाले अक्सर, खा जाते हैं मात,
वही फोड़ता सिर पत्थर से, जिसे रहे थे पाल।

पत्थर की पूजा होती है, समझ उसे भगवान,
लेकिन पत्थर-दिल क्या जानें, जिनकी उल्टी चाल।

तैर गये पत्थर पानी पर, जिस पर अंकित राम,
उनके सम्मुख नतमस्तक है, हरदम अपना भाल ।

पत्थर को पानी करने की होती जिसमें चाह,
दशरथ माँझी बन वह थामे, अपने कर में फाल।

दो पत्थर के टकराने से, कभी जली थी आग,
आदिम मानव का सर्वोत्तम बनी रही जो ढाल।

शीशे से पत्थर टूटेगा, आएगा दिन एक,
यही सोच शीशा पत्थर से, करता नहीं सवाल।
</poem>
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