भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
काट दो तो और कल्ले फूटते हैं
और भी ताज़े, हरे वे दीखते हैं
खूं उतर आता है जब आँखों में यारो
तब उन्हीं झरनों से शोले फूटते हैं
 
चींटियों के संगठित दल देखकर के
हाथियों के भी पसीने छूटते हैं
 
मान लूँ कैसे कि वो इंसान चुप है
उसके माथे पर पड़े बल बोलते हैं
 
ऐसे अय्यारों को भी देखा है मैंने
ख़ास बनकर के जो पत्ता काटते हैं
 
जिनको अपने आप पर होता भरोसा
आसमानों को वो छूकर लौटते हैं
 
वो कभी प्यासे नहीं मरते यक़ीनन
जो बियाबानों में दरिया ढूँढते हैं
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,393
edits